Friday 19 August 2016

तोड़ दो यह बुत

I ain't a poet but these lines just got written as if by themselves...

तोड़ दो यह बुत-ओ-मकाँ इन बुतफरोशों के, सारे शहर-अो-मुल्क से अब,
वह भी इन्सान थे रूस-अो-इराक़ में, क्या तुम्हारे ही बाज़ुअों में दम नहीं;


ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत सी पड़ चुकी है तुमको,
शायद अब खुली ख़ुशगवार हवा में साँस लेने की ख़्वाहिश भी नहीं;

या खुदा मेरे, ऐसी क़ौम को मौत भी नहीं माफ़िक़,
कि दोज़ख़ की आग भी शर्मिंदा हो जायेगी   इनके रूबरू;

कि सोचेगी वह आग ए दोज़ख़ भी कई बार कि,
क्यों नापाक हो जाऊँ मैं ऐसे इन्सानों को छू कर;

शर्मसार होगा खुदा भी अपनी ख़ुद की खुदाई पर कि,
क्यों टूट न गये हाथ उसके, भगत सिंह की क़ौम को बे क़ौम करते हुये;

ग़म तो यह है, या बदक़िस्मती है यह कि,
खुदाई शर्मसार हो सकती है पर यह इन्सां नहीं;

तो मरने दो इसको, जीने दो ज़िन्दगी ज़िल्लत की; दो मौत मरने दो, शर्मसार होने दो;
रुसवा होते देखने दो इसको अपने ही पर्दानशीनों को और अपने घरबारों को...

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